सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं की ओर से एडवोकेट विष्णु शंकर जैन ने अर्जी दाखिल कर कहा कि आईपीसी की धारा-494 और मुस्लिम पर्नसल लॉ (शरियत ) एप्लिकेशन एक्ट 1937 की धारा-2 के तहत मुस्लिम को एक से ज्यादा शादी की इजाजत देता है और ऐसे में इस प्रावधान को गैर संवैधानिक घोषित किया जाए।
आईपीसी और शरियत लॉ के उस प्रावधान को गैर संवैधानिक घोषित करने की गुहार लगाई गई है जिसके तहत मुस्लिम पुरुषों को एक से ज्यादा शादी करने की इजाजत है। याचिकाकर्ता ने कहा कि एक समुदाय विशेष को द्विविवाह की इजाजत नहीं दी जा सकती जबकि अन्य धर्म में बहुविवाह प्रतिबंधित है। सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर बहुविवाह को गैर संवैधानिक घोषित करने के लिए गुहार लगाई गई है। याचिका में गुहार लगाई गई है कि आईपीसी की धारा-494 और शरियत लॉ की धारा-2 के उस प्रावधान को गैर संवैधानिक करार दिया जाए जिसके तहत मुस्लिम पुरुष को एक से ज्यादा शादी की इजाजत देता है।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका
सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं की ओर से एडवोकेट विष्णु शंकर जैन ने अर्जी दाखिल कर कहा कि आईपीसी की धारा-494 और मुस्लिम पर्नसल लॉ (शरियत ) एप्लिकेशन एक्ट 1937 की धारा-2 के तहत मुस्लिम को एक से ज्यादा शादी की इजाजत देता है और ऐसे में इस प्रावधान को गैर संवैधानिक घोषित किया जाए। हिंदू, पारसी और क्रिश्चियन पुरुष अगर पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी करता है तो वह आईपीसी की धारा-494 के तहत दोषी माना जाएगा। लेकिन मुस्लिम पुरुष अगर पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी करता है तो वह अपराध नहीं होगा। इस तरह देखा जाए तो धर्म के नाम पर दूसरी शादी की इजाजत आईपीसी के प्रावधान में भेदभाव है और ये संविधान के अनुच्छेद-14 समानता का अधिकार और अनुच्छेद- 15 (धर्म और जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं) के प्रावधान का उल्लंघन करता है।
दूसरी शादी के लिए सजा का प्रावधान
याचिकाकर्ता ने कहा कि आईपीसी की धारा-494 के तहत प्रावधान है कि कोई शख्स अगर शादीशुदा रहते हुए दूसरी शादी करता है और वह शादी अमान्य है तो ऐसी दूसरी शादी करने वाले को सजा का प्रावधान है और सात साल तक कैद की सजा हो सकती है। याचिकाकर्ता ने कहा कि जो शादी अमान्य है वह शादी नहीं हो सकती और इस प्रावधान के कारण ही मुस्लिम पुरुष के लिए पत्नी के रहते दूसरे विवाह के प्रावधान प्रोटेक्ट हो रहे हैं क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ मुस्लिम पुरुष को पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी की इजाजत देता है।
आईपीसी की धारा-494 का हवाला
याचिकाकर्ता ने कहा कि राज्य कोई भी क्रिमिनल लॉ ऐसा नहीं बना सकता जो किसी के प्रति भेदभाव पैदा करे। आपराधिक मामले में सजा का प्रावधान धार्मिक प्रैक्टिस के आधार पर अलग नहीं हो सकता है। दंड संहिता सभी पर एक समान लागू होना चाहिए और उसका पर्सनल लॉ से लेनादेना नहीं होना चाहिए। याचिकाकर्ता ने कहा कि आईपीसी की धारा-494 धर्म के आधार पर भेदभाव करता है और ये संविधान के अनुच्छेद-14 और 15 (1) का उल्लंघन करता है। मुस्लिम पर्नसल लॉ (शरियत) एप्लिकेशन एक्ट 1937 के तहत मुस्लिम की शादी और तलाक की व्याख्या है और ये अनुच्छेद-14 का उल्लंघन करता है। संवैधानिक बेंच एक बार में तीन तलाक पहले ही गैर संवैधानिक घोषित कर चुका है।