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December 23, 2024
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संबंध सहमतिपूर्ण था, अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि वह नाबालिग थीः गुवाहाटी हाईकोर्ट ने पॉक्सो दोषी को बरी किया

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने हाल ही में पॉक्सो एक्ट की धारा 6 और भारतीय दंड संहिता की धारा 363 के तहत एक अभियुक्त की सजा को इस आधार पर खारिज कर दिया कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा है कि कथित अपराध के समय पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी। अदालत ने यह भी कहा कि आरोपी और पीड़िता के बीच संबंध सहमति से थे। जस्टिस मृदुल कुमार कलिता की एकल पीठ ने कहा कि यह अब एक तय सिद्धांत है कि रेडियोलॉजिस्ट की राय के आधार पर उम्र के निर्धारण के मामले में, त्रुटि के मार्जिन का लाभ हमेशा आरोपी को दिया जाना चाहिए।

अदालत ने कहा,‘‘वर्तमान मामले में, डॉक्टर ने कहा है कि पीड़िता की आयु 18 वर्ष (16 से 17 वर्ष) से कम थी और अगर हम 16 (सोलह) से 17 (सत्रह) वर्ष में त्रुटि के 2 (दो) वर्ष को जोड़ते हैं तो यह 18 (अठारह) से 19 (उन्नीस) वर्ष आएगा, जिस स्थिति में पीड़िता को नाबालिग के रूप में नहीं माना जा सकता है क्योंकि पॉक्सो एक्ट 2012 की धारा 2 (1) (डी) के तहत एक बच्चे को 18 वर्ष से कम उम्र के किसी व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 363 के तहत अपराध के मामले में भी ऐसा ही है। उपरोक्त परिस्थितियों के मद्देनजर, यह अदालत यह मानने के लिए विवश है कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा है कि पीड़िता की उम्र उस समय 18 वर्ष से कम थी जब कथित अपराध किया गया था और उसी का लाभ आरोपी को मिलेगा।’’

01 मई, 2017 को पीड़िता के पिता ने एक एफआईआर दर्ज करवाई थी, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसकी बेटी (पीड़ित) का उसी दिन सुबह लगभग 8ः00 बजे आरोपी-अपीलकर्ता ने अपहरण कर लिया था। पुलिस ने आईपीसी की धारा 363, धारा 376 और पॉक्सो एक्ट 2012 की धारा 4 के तहत आरोपी-अपीलकर्ता के खिलाफ एक चार्ज-शीट दायर की थी। 11 जून, 2019 को ट्रायल कोर्ट ने आईपीसी की धारा 363 के साथ -साथ पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत अपीलकर्ता को दोषी ठहराया और उसे 10 साल के कारावास की सजा सुनाई। अपीलकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 374 के तहत एक अपील दायर की, जिसमें ट्रायल कोर्ट के उपरोक्त फैसले और आदेश को चुनौती दी गई।

अपीलकर्ता के लिए उपस्थित वकील ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने मुख्य रूप से अपीलार्थी को दोषी ठहराने के लिए पीड़िता की गवाही पर भरोसा किया है, हालांकि, पीड़िता की गवाही किसी भी विश्वसनीयता के लिए अयोग्य है क्योंकि उसने अदालत के समक्ष बयान दर्ज कराते समय और सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दिए गए बयान में घटना के बारे में अलग-अलग विवरण दिया है। आगे यह भी प्रस्तुत किया गया कि अभियोजन पक्ष पीड़ित लड़की की उम्र को साबित करने के लिए किसी भी विश्वसनीय सबूत को पेश करने में विफल रहा है और ट्रायल कोर्ट ने यह निकर्ष निकालने के लिए कि पीड़िता नाबालिग है,अस्वीकार्य सबूतों पर भरोसा किया है।

एपीपी डी.दास ने कहा कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्रियों से, यह मामला दो युवा व्यक्तियों के बीच रोमांटिक संबंधों का मामला प्रतीत होता है। अदालत ने कहा कि दस्तावेजी साक्ष्य के अनुसार, पीड़ित लड़की की उम्र के बारे में कोई भी प्रमाण पत्र, किसी भी अभियोजन पक्ष के गवाह द्वारा पीड़ित लड़की की उम्र साबित करने के लिए पेश नहीं किया गया था। हाईकोर्ट ने कहा,‘‘हालांकि, कहा गया कि जन्म प्रमाण पत्र न ही प्रदर्शित किया गया था, न ही यह रिकॉर्ड पर उपलब्ध है और इस बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि पीड़ित लड़की की उम्र साबित करने के लिए एक दस्तावेजी सबूत के रूप में सुनवाई के दौरान ट्रायल कोर्ट के समक्ष उक्त जन्म प्रमाण पत्र को पेश क्यों नहीं किया गया था? जन्म प्रमाण पत्र को पेश करने के लिए अभियोजन पक्ष की ओर से विफलता, यदि यह उपलब्ध था, तो केवल भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114 (जी) के तहत अभियोजन पक्ष के खिलाफ प्रतिकूल अनुमान निकालने का नेतृत्व करेगी।’’ अदालत ने आगे कहा कि अभियोजन पक्ष के अन्य गवाहों की गवाही के अनुसार, पीड़िता ने अकेले अपने घर को छोड़ दिया था और वह घटना के दिन अपनी मर्जी से ऑटो-रिक्शा में सवार होकर गई थी। कोर्ट ने कहा,‘‘पीड़िता ने ऑटो-रिक्शा, वैन और ट्रेन में अपीलार्थी के साथ यात्रा की और लगभग आठ महीने तक उसके साथ रही और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि उसे अपीलकर्ता द्वारा कभी जबरन हिरासत में रखा गया था, बल्कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दिए गए अपने बयान में उसने कहा था कि वह पति और पत्नी के रूप में अपीलकर्ता के साथ रही थी। तथ्य यह है कि उसने विभिन्न चरणों में घटना के विभिन्न विवरण को सुनाया, वह भी उसकी गवाही को अविश्वसनीय बनाता है। इस प्रकार, इस अदालत की राय है कि अपीलकर्ता और पीड़िता के बीच संबंध सहमति से था।’’ इस प्रकार, अदालत ने माना कि अभियोजन पक्ष पॉक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 6 के साथ-साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 363 के तहत आरोपों को उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है और अपीलकर्ता संदेह का लाभ पाने का हकदार है।

तदनुसार, अदालत ने ट्रायल कोर्ट के उपरोक्त फैसले और आदेश को खारिज कर दिया और आरोपी-अपीलकर्ता को बरी कर दिया।

केस टाइटल- श्री उत्पल डेबनाथ बनाम असम राज्य व अन्य कोरम-जस्टिस मृदुल कुमार कलिता

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